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विष्णुपुराण

विष्णुपुराण के बारे में बताते हैं! 〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰 विष्णु पुराण के रचनाकार पराशर ऋषि थे, ये महर्षि वसिष्ठ के पौत्र थे, इस पुराण में पृथु, ध्रुव और प्रह्लाद के प्रसंग अत्यन्त रोचक हैं। 'पृथु' के वर्णन में धरती को समतल करके कृषि कर्म करने की प्रेरणा दी गई है, कृषि-व्यवस्था को चुस्त-दुरूस्त करने पर ज़ोर दिया गया है, घर-परिवार, ग्राम, नगर, दुर्ग आदि की नींव डालकर परिवारों को सुरक्षा प्रदान करने की बात कही गई है।  इसी कारण धरती को पृथ्वी नाम दिया गया, ध्रुव के आख्यान में सांसारिक सुख, ऐश्वर्य, धन-सम्पत्ति आदि को क्षण भंगुर अर्थात् नाशवान समझकर आत्मिक उत्कर्ष की प्रेरणा दी गई है, प्रह्लाद के प्रकरण में परोपकार तथा संकट के समय भी सिद्धांतों और आदर्शों को न त्यागने की बात कही गई है। विष्णु पुराण में भगवान् श्रीकृष्ण के समाज सेवी, प्रजा प्रेमी, लोक रंजक तथा लोक हिताय स्वरूप को प्रकट करते हुए उन्हें महामानव की संज्ञा दी गई है, श्रीकृष्ण ने प्रजा को संगठन-शक्ति का महत्त्व समझाया और अन्याय का प्रतिकार करने की प्रेरणा दी, अधर्म के विरुद्ध धर्म-शक्ति का परचम लहराया, महाभारत में कौरवों का विनाश औ

श्रीमद्भागवत का एक सर्वाधिक चर्चित पात्र राजा परीक्षित!!!!!

श्रीमद्भागवत का एक सर्वाधिक चर्चित पात्र राजा परीक्षित!!!!! महाभारत के अनुसार परीक्षित अर्जुन के पौत्र, अभिमन्यु और उत्तरा के पुत्र तथा जनमेजय के पिता थे। जब ये गर्भ में थे तब उत्तरा के पुकारने पर विष्णु ने अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से उनकी रक्षा की थी। इसलिए इनका नाम 'विष्णुरात' पड़ा। भागवत (१, १२, ३०) के अनुसार गर्भकाल में अपने रक्षक विष्णु को ढूँढ़ने के कारण उन्हें 'परीक्षित, (परिअ ईक्ष) कहा गया किंतु महाभारत (आश्व., ७०, १०) के अनुसार कुरुवंश के परिक्षीण होने पर जन्म होने से वे 'परिक्षित' कहलाए। महाभारत में इनके विषय में लिखा है कि जिस समय ये अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ में थे, द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा ने गर्भ में ही इनकी हत्या कर पांडुकुल का नाश करने के अभिप्राय से ऐषीक नाम के अस्त्र को उत्तरा के गर्भ में प्रेरित किया जिसका फल यह हुआ कि उत्तरा के गर्भ से परीक्षित का झुलसा हुआ मृत पिंड बाहर निकला।  श्रीकृष्ण को पांडुकुल का नामशेष हो जाना मंजूर न था, इसलिये उन्होंने अपने योगबल से मृत भ्रूण को जीवित कर दिया। परिक्षीण या विनष्ट होने से बचाए जाने के कारण

यमराज की मृत्यु कैसे हुई?

यमराज की मृत्यु कैसे हुई? 〰️〰️🔸〰️〰️🔸〰️〰️ यमराज को मृत्यु का देवता माना जाता है यदि यमराज स्वयं मृत्यु के देवता हैं तो इनकी मृत्यु कैसे संभव है? यह बात हास्यप्रद सी लगती है परंतु वेद और पुराण में इनकी मृत्यु की एक कथा बताई गई है. इसको बताने से पहले यमराज के बारे में कुछ जान लेना बहुत जरूरी है. यमराज की एक जुड़वा बहन थी जिसे यमुना भी कहा जाता है. यमराज भैंसे की सवारी करते हैं और यमराज की आराधना विभिन्न नामों से की जाती है जैसे कि यम, धर्मराज मृत्यु, आतंक, वैवस्वत और काल. बहुत समय पहले एक श्वेत मुनि थे जो भगवान शिव के परम भक्त थे और गोदावरी नदी के तट पर निवास करते थे जब उनकी मृत्यु का समय आया तो यम देव ने उनके प्राण लेने के लिए मृत्यु पास को भेजा लेकिन श्वेतमुनि अभी प्राण नहीं त्यागना चाहते थे तो उन्होंने महामृत्युंजय मंत्र का जाप करना शुरू कर दिया. जब मृत्यु पाश श्वेत मुनि के आश्रम में पहुंचे तो देखा कि आश्रम के बाहर भैरो बाबा पहरा दे रहे हैं. धर्म और दायित्व में बंधे होने के कारण जैसे ही मृत्यु पास ने मुनि के प्राण हरने की कोशिश की तभी भैरव बाबा ने प्रहार करके मृत्यु पास को मुर्छित कर

श्री विन्ध्यवासिनी स्त्रोतम्

श्री विन्ध्यवासिनी स्त्रोतम् "मोहि पुकारत देर भई जगदम्ब बिलम्ब कहाँ करती हो" दैत्य संहारन वेद उधारन, दुष्टन को तुमहीं खलती हो ! खड्ग त्रिशूल लिये धनुबान, औ सिंह चढ़े रण में लड़ती हो !! दास के साथ सहाय सदा, सो दया करि आन फते करती हो ! मोहि पुकारत देर भई, जगदम्ब विलम्ब कहाँ करती हो !! आदि की ज्योति गणेश की मातु, कलेश सदा जन के हरती हो ! जब जब दैत्यन युद्ध भयो, तहँ शोणित खप्पर लै भरती हो !! कि कहुँ देवन गाँछ कियो, तहँ धाय त्रिशूल सदा धरती हो ! मोहि पुकारत देर भई, जगदम्ब विलम्ब कहाँ करती हो !! सेवक से अपराध परो, कछु आपन चित्त में ना धरती हो ! दास के काज सँभारि नितै, जन जान दया को मया करती हो !! शत्रु के प्राण संहारन को, जग तारन को तुम सिन्धु सती हो ! मोहि पुकारत देर भई, जगदम्ब विलम्ब कहाँ करती हो !! कि तो गई बलि संग पताल, कि तो पुनि ज्योति अकाशगती हो ! कि धौं काम परो हिंगलाजहिं में, कै सिन्धु के विन्दु में जा छिपती हो !! चुग्गुल चोर लबारन को, बटमारन को तुमहीं दलती हो ! मोहि पुकारत देर भई, जगदम्ब विलम्ब कहाँ करती हो !! बान सिरान कि सिँह हेरान कि, ध्यान धरे प्रभु को

नित्य तुलसी पूजा की संक्षिप्त विधि!!!!!!!

नित्य तुलसी पूजा की संक्षिप्त विधि!!!!!!! एक कथा के अनुसार क्षीरसागर का मन्थन करने पर ऐरावत हाथी, कल्पवृक्ष, चन्द्रमा, लक्ष्मी, कौस्तुभमणि, दिव्य औषधियां व अमृत कलश आदि निकले । सभी देवताओं ने लक्ष्मी एवं अमृत कलश भगवान विष्णु को अर्पित कर दिए । भगवान विष्णु अमृत कलश को अपने हाथ में लेकर अति प्रसन्न हुए और उनके आनन्दाश्रु उस अमृत में गिर पड़े, जिनसे तुलसी की उत्पत्ति हुई । इसीलिए तुलसी भगवान विष्णु को बहुत प्रिय हो गयीं और तब से देवता भी तुलसी को पूजने लगे । कार्तिक पूर्णिमा को तुलसीजी का प्राकट्य हुआ था और सर्वप्रथम भगवान श्रीहरि ने चन्दन, सिंदूर, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य व स्त्रोत आदि से तुलसीजी का पूजन किया था । भगवान श्रीहरि ने तुलसी की इस प्रकार स्तुति की– वृन्दा वृन्दावनी विश्वपूजिता विश्वपावनी । पुष्पसारा नन्दिनी च तुलसी कृष्णजीवनी ।। एतन्नामाष्टकं चैव स्रोतं नामार्थसंयुतम् । य: पठेत् तां च सम्पूज्य सोऽश्वमेधफलं लभेत् ।। (देवीभागवत ९।२५।३२-३३) अर्थ–वृन्दा, वृन्दावनी, विश्वपूजिता, विश्वपावनी, पुष्पसारा, नन्दिनी, तुलसी, कृष्णजीवनी–ये तुलसी के आठ नाम हैं। ये नाम स्त्रोत के र