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जुलाई, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

अन्नपूर्णा सहस्त्र नामाली

🌹 *श्री अन्नपूर्णा सहस्त्रनामावलिः* 🌹 १ ॐ अन्नपूर्णायै नमः । २ ॐ अन्नदात्र्यै नमः । ३ ॐ अन्नराशिकृतालयायै नमः । ४ ॐ अन्नदायै नमः । ५ ॐ अन्नरूपायै नमः । ६ ॐ अन्नदानरतोत्सवायै नमः । ७ ॐ अनन्तायै नमः । ८ ॐ अनन्ताक्ष्यै नमः । ९ ॐ अनन्तगुणशालिन्यै नमः । १० ॐ अच्युतायै नमः । ११ ॐ अच्युतप्राणायै नमः । १२ ॐ अच्युतानन्दकारिण्यै नमः । १३ ॐ अव्यक्तायै नमः । १४ ॐ अनन्तमहिमायै नमः । १५ ॐ अनन्तस्य कुलेश्वर्यै नमः । १६ ॐ अब्धिस्थायै नमः । १७ ॐ अब्धिशयनायै नमः । १८ ॐ अब्धिजायै नमः । १९ ॐ अब्धिनन्दिन्यै नमः । २० ॐ अब्जस्थायै नमः । २१ ॐ अब्जनिलयायै नमः । २२ ॐ अब्जजायै नमः । २३ ॐ अब्जभूषणायै नमः । २४ ॐ अब्जाभायै नमः । २५ ॐ अब्जहस्तायै नमः । २६ ॐ अब्जपत्रशुभेक्षणायै नमः । २७ ॐ अब्जाननायै नमः । २८ ॐ अनन्तात्मने नमः । २९ ॐ अग्निस्थायै नमः । ३० ॐ अग्निरूपिण्यै नमः । ३१ ॐ अग्निजायायै नमः । ३२ ॐ अग्निमुख्यै नमः । ३३ ॐ अग्निकुण्डकृतालयायै नमः । ३४ ॐ अकारायै नमः । ३५ ॐ अग्निमात्रे नमः । ३६ ॐ अजयायै नमः । ३७ ॐ अदितिनन्दिन्यै नमः । ३८ ॐ आद्यायै नमः । ३९ ॐ आदित्यसंकाशायै नमः । ४० ॐ आत्मज्ञायै नमः । ४१ ॐ आत्मगोचरा

पूर्णिमा पर क्यों सुनते है सत्यनारायण कथा

〰〰🌼〰〰🌼〰〰🌼〰️〰️ *पूर्णिमा पर क्यों सुनी जाती है* *सत्‍यनारायण व्रत कथा...?* 〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️ आमतौर पर देखा जाता है किसी शुभ काम से पहले या मनोकामनाएं पूरी होने पर सत्यनारायण व्रत की कथा सुनने का विधान है। सनातन धर्म से जुड़ा शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जिसने श्रीसत्यनारायण कथा का नाम न सुना हो। इस कथा को सुनने का फल हजारों सालों तक किए गये यज्ञ के बराबर माना जाता है । शास्त्रों के मुताबिक ऐसा माना गया है कि इस कथा को सुनने वाला व्यक्ति अगर व्रत रखता है तो उसेके जीवन के दुखों को श्री हरि विष्णु खुद ही हर लेते हैं । स्कन्द पुराण के मुताबिक भगवान  सत्यनारायण श्री हरि विष्णु का ही दूसरा रूप हैं । इस कथा की महिमा को भगवान सत्यनारायण ने अपने मुख से देवर्षि नारद को बताया है । पूर्णिमा के दिन इस कथा को सुनने का विशेष महत्व है । कलयुग में इस व्रत कथा को सुनना बहुत प्रभावशाली माना गया है ।  जो लोग पूर्णिमा के दिन कथा नहीं सुन पाते हैं , वे कम से कम भगवान सत्यनारायण का मन में ध्यान कर लें । विशेष लाभ होगा । पुराणों में ऐसा भी बताया गया है कि जिस स्थान पर भी श्री सत्यनारायण भगवान की

मंत्र योग

शास्त्रों के अनुसार अनेक प्रकार के योग बताए गये हैं, इन सभी योग की साधना सबसे सरल और सुगम है। मंत्र योग की साधना कोई श्रद्धा पूर्वक व निर्भयता पूर्वक कर सकता है। श्रद्धापूर्वक की गयी साधना से शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त कर अभीष्ट की प्राप्ति की जा सकती है। अपने लक्ष्य को मंत्र योग द्वारा शीघ्रता से प्राप्त किया जा सकता है। वर्तमान समय में सम्पूर्ण संसार में लगभग 90 प्रतिषत साधक मंत्र योग के अनुयायी है अत: जिन साधकों को अन्य योग साधना कठिन प्रतीत हो उन साधकों को मंत्र योग की साधना से अभीष्ट सिद्धि मिल सकती हैं। सामान्य व्यक्ति साधना आरम्भ करना चाहते है उनके लिए साधनपाद में महर्षि पतंजलि ने सर्वप्रथम क्रियायोग को बतलाते है-  महर्षि पतंजलि की दृष्टि में क्रियायोग वह है कि जिन क्रियाओं से योग सधे, और यह क्रियायोग समाधि की सिद्धि देने वाले है। मंत्रयोग की अवधारणा वह शक्ति जो मन को बन्धन से मुक्त कर दे वही मंत्र योग है।” मंत्र को सामान्य अर्थ ध्वनि कम्पन से लिया जाता है। मंत्र विज्ञान ध्वनि के विद्युत रुपान्तर की साधना है, अनोखी विधि है।        ‘मंत्रजपान्मनोलयो मंत्रयोग:।’  अर्थात् अभीष्ट मंत्र

ज्ञान योग

कर्मयोग का अर्थ कर्म शब्द कृ धातु से बनता है। कृ धातु में ‘मन’ प्रत्यय लगने से कर्म शब्द की उत्पत्ति होती है। कर्म का अर्थ है क्रिया, व्यापार, भाग्य आदि। हम कह सकते हैं कि जिस कर्म में कर्ता की क्रिया का फल निहित होता है वही कर्म है। कर्म करना मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। तथा कर्म के बिना मनुष्य का जीवित रहना असम्भव है। कर्म करने की इस प्रवृत्ति के संबन्ध में गीता में कहा गया है- नहि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत  कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै:।। (गीता 3/5)  अर्थात् इस विषय में किसी भी प्रकार का संदेह नहीं किया जा सकता कि मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रह सकता, क्योंकि सभी मानव प्रकृतिजनित गुणों के कारण कर्म करने के लिए बाध्य होते हैं। मनुष्य को न चाहते हुए भी कुछ न कुछ कर्म करने होते हैं और ये कर्म ही बन्धन के कारण होते हैं। साधारण अवस्था में किये गये कर्मों में आसक्ति बनी रहती है, जिससे कई प्रकार के संस्कार उत्पन्न होते हैं। इन्हीं संस्कारों के कारण मनुष्य जीवन-मरण के चक्र में फंसा रहता है। जबकि ये कर्म यदि अनासक्त भाव से किये जाते हैं

कर्म योग

कर्मयोग का अर्थ कर्म शब्द कृ धातु से बनता है। कृ धातु में ‘मन’ प्रत्यय लगने से कर्म शब्द की उत्पत्ति होती है। कर्म का अर्थ है क्रिया, व्यापार, भाग्य आदि। हम कह सकते हैं कि जिस कर्म में कर्ता की क्रिया का फल निहित होता है वही कर्म है। कर्म करना मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। तथा कर्म के बिना मनुष्य का जीवित रहना असम्भव है। कर्म करने की इस प्रवृत्ति के संबन्ध में गीता में कहा गया है- नहि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत  कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै:।। (गीता 3/5)  अर्थात् इस विषय में किसी भी प्रकार का संदेह नहीं किया जा सकता कि मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रह सकता, क्योंकि सभी मानव प्रकृतिजनित गुणों के कारण कर्म करने के लिए बाध्य होते हैं। मनुष्य को न चाहते हुए भी कुछ न कुछ कर्म करने होते हैं और ये कर्म ही बन्धन के कारण होते हैं। साधारण अवस्था में किये गये कर्मों में आसक्ति बनी रहती है, जिससे कई प्रकार के संस्कार उत्पन्न होते हैं। इन्हीं संस्कारों के कारण मनुष्य जीवन-मरण के चक्र में फंसा रहता है। जबकि ये कर्म यदि अनासक्त भाव से किये जाते हैं

अनुस्वार एवम अनुनासिका

अनुस्वार - मुख्यता यह "न्" व "म्" से बनता है और इसे बिन्दु (ं) से प्रदर्शित करते हैँ। यह अनुस्वार सन्धि (संस्कृत) से भली प्रकार समझाया जा सकता है। अनुस्वार सन्धि दो प्रकार की होती है। 1 पदान्त अनुस्वार सन्धि - (८-३-२३)- पदान्त "म्" को अनुस्वार होता है "हल्" (कोई भी व्यञ्जन वर्ण/अक्षर) परे होने पर। उदाहरण - वयम् रक्षामः = वयं रक्षामः, ग्रामम् गच्छति = ग्रामं गच्छति 2 अपदान्त अनुस्वार सन्धि -(८-३-२४) - अपदान्त "न्" व "म्" को अनुस्वार होता है "झल्" (क, च, ट, त या प वर्गोँ के प्रथम, द्वितीय, तृतीय व चतुर्थ वर्ण) परे होने पर। उदाहरण - आक्रम् + स्यते = आक्रंस्यते, मन् + स्यते = मंस्यते किसी शब्द में अनुस्वार वर्ण के परे जो वर्ण है उसी वर्ण के वर्ग का पञ्चम वर्ण(अक्षर) में अनुस्वार परिवर्तित हो जाता है यदि अनुस्वार के परे (बाद मेँ) वर्ण(अक्षर) क, च, ट, त या प वर्ग का है। उदाहरण - तिर्यक लिखित शब्द अनुस्वार के परे हैँ। क वर्ग - अंक = अङ्क, शंख = शङ्ख, गंगा - गङ्गा, लंघन = लङ्घन। च वर्ग - मंच = मञ्च, लांछन = लाञ्छन, खंज = खञ्