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जुलाई, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

शिव प्रदीक्षणा विधि

शिवालये प्रदक्षिण विधिः || व्रुषं चण्डं व्रुषंचैव सोमसूत्रं पुनर्व्रुषं | चण्डंच सोम सूत्रं च पुनश्चण्डं पुनर्व्रुषम् || शैवागम || नाक्षतैरर्चयेद्विष्णुं न तुलस्या गणाधिपं | न दूर्वाया यजॅद्दुर्गां बिल्वैर्नैव च भास्करम् || न केतक्या महेशानं कुटजेनापि नार्चयेत् | अपामार्गशमीदूर्वाः शिंशपा तुलसी तथा || भ्रंगराजं चामलकं खादिरं च हरिप्रियं | तुलसी पत्रविच्छेदः शालिग्रामे न चेष्यते | उन्मत्तमर्कपुष्पं च विष्णोर्वज्यं सदा बुधैः || धर्मं यो बाधते धर्मोनस धर्मः कदाचन | अविरोधीतु योधर्मः सधर्मः सद्बिरुच्यते || Real vaishnava's उपक्रुति कुशला जगत्यजस्रं परकुशलानि निजानि मन्यमानाः |  अपिपर परिभावने दयार्द्राः शिव मनसः खलु वैष्णवा ||

बांस जलाना वर्जित

मना है ऐसा कहीं भी उल्लेख अप्राप्त। एक आलेख किसी ने भेजा किन्तु वह  सिद्धि हेतु द्रविड़ प्राणायाम है। मुझे सन्तुष्ट नही कर सका।👇🏻👇🏻😇 *हिन्दू धर्म में बांस को क्याें नहीं जलाना चाहिये* बांस ना जलाने के निम्नलिखित कारण समाज में व्याप्त है | *1. कहते हैं कि बांस जलाने से पितृ दोष लगता है |* *2. बांस जलाने से वंश का नाश होता है |* *3. बांस इसलिए नहीं जलाते कि उससे भगवान श्री कृष्ण की बांसुरी बनी थी |* *4.  बांस की विवाह उपनयन आदि में पूजा होती है इसलिए उसे नहीं जलाते |* *5.  विज्ञान के अनुसार   बांस में लेड व हेवी मेटल प्रचुर मात्रा में होता है |लेड जलने पर ऑक्साइड बनता है जो एक खतरनाक नीरो टॉक्सिक है |* 💐💐💐💐🌸🌸🌸🌸🌸 *अब प्रश्न यह है कि धर्मशास्त्र में इसका प्रमाण कहां है ?* पंचभाष्य युक्त पारस्करगृह्य सूत्र पृष्ट 215 *भाष्यकार हरिहर*  *'' समिद्-आधानम्''* में मरीचि का बचन उद्धृत करते हुये लिखते हैं कि इस तरह की समिधा नही लेनी चाहिये - *विशीर्णाः विदला-ह्रस्वा-वक्राः ससुपिराः कृशाः |* *दीर्घा-स्थूला-घुणैर्जुष्टाः कर्मसिद्धि विनाशिकाः ||* *वृक्षाः ये कंटकाकीर्णाः खद

लिंग क्या

1.) त आकाशे न विधन्ते -वै०। अ ० २ । आ ० १ । सू ० ५ अर्थात रूप, रस, गंध और स्पर्श ये लक्षण आकाश में नही है किन्तु शब्द ही आकाश का गुण है। 2.) निष्क्रमणम् प्रवेशनमित्याकश स्य लिंगम् -वै०। अ ० २ । आ ० १ । सू ० २०   अर्थात जिसमे प्रवेश करना व् निकलना होता है वह आकाश का लिंग है अर्थात ये आकाश के गुण है । 3.) अपरस्मिन्नपरं युगपच्चिरं क्षिप्रमिति काललिङ्गानि । -वै०। अ ० २। आ ० २ । सू ० ६ अर्थात जिसमे अपर, पर, (युगपत) एक वर, (चिरम) विलम्ब, क्षिप्रम शीघ्र इत्यादि प्रयोग होते है, इसे काल कहते है, और ये काल के लिंग है। 4.) इत इदमिति यतस्यद्दिश्यं लिंगम । -वै०। अ ० २ । आ ० २ । सू ० १ ० अर्थात जिसमे पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊपर व् नीचे का व्यवहार होता है उसी को दिशा कहते है मतलब किये सभी दिशा के लिंग है। 5.) इच्छाद्वेषप्रयत ्नसुखदुःखज्ञाना न्यात्मनो लिंगमिति – न्याय० अ ० १ । आ ० १ । सू ० १ ० अर्थात जिसमे (इच्छा) राग, (द्वेष) वैर, (प्रयत्न) पुरुषार्थ, सुख, दुःख, (ज्ञान) जानना आदि गुण हो, वो जीवात्मा है और, ये सभी जीवात्मा के लिंग अर्थात कर्म व् गुण है । इसीलिए शून्य, आकाश, अनन्त, ब्रह्माण्ड और

महालिंग स्तुति

॥ श्रीमहालिङ्गस्तुतिः ॥  अनादिमलसंसार रोगवैद्याय शम्भवे । नमश्शिवाय शान्ताय ब्रह्मणे लिङ्गमूर्तये ॥ १॥ आदिमध्यान्तहीनाय स्वभावानलदीप्तये । नमश्शिवाय शान्ताय ब्रह्मणे लिङ्गमूर्तये ॥ २॥ प्रलयार्णवसंस्थाय प्रलयोत्पत्तिहेतवे । नमश्शिवाय शान्ताय ब्रह्मणे लिङ्गमूर्तये ॥ ३॥ ज्वालामालावृताङ्गाय ज्वलनस्तम्भरूपिणे । नमश्शिवाय शान्ताय ब्रह्मणे लिङ्गमूर्तये ॥ ४॥ महादेवाय महते ज्योतिषेऽनन्ततेजसे । नमश्शिवाय शान्ताय ब्रह्मणे लिङ्गमूर्तये ॥ ५॥ प्रधानपुरुषेशाय व्योमरूपाय वेधसे । नमश्शिवाय शान्ताय ब्रह्मणे लिङ्गमूर्तये ॥ ६॥ निर्विकाराय नित्याय सत्यायामलतेजसे । नमश्शिवाय शान्ताय ब्रह्मणे लिङ्गमूर्तये ॥ ७॥ वेदान्तसाररूपाय कालरूपाय धीमते । नमश्शिवाय शान्ताय ब्रह्मणे लिङ्गमूर्तये ॥ ८॥ इति श्रीकूर्मपुराणान्तर्गतं श्रीमहालिङ्गस्तुतिः समाप्ता ।              

मूर्ति पूजा वेदो मे

वेद में मूर्ति तत्त्व १. मूर्त-अमूर्त का समन्वय-परात्पर निर्विशेष ब्रह्म निराकार है। उसे देखना, जानना सम्भव नहीं है। उसके द्वारा सृष्ट जगत् साकार है। उसका वर्णन जिन शब्दों में किया जाता है वे भी साकार तथा विशेष या भिन्न भिन्न रूपों वाले हैं। ४ स्तर की ध्वनि में भी परा-वाक् निर्विशेष है, उसका विशेष रूपों में वर्गीकरण विशिष्ट है। मूर्त रूप वाक् के ३ पद मस्तिष्क के भीतर हैं-पश्यन्ती, मध्यमा, वैखरी। अपरिमिततरमिव हि मनः परिमिततरमेव हि वाक्। (शतपथ ब्राह्मण, १/४/४/७) चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः। गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति॥ (ऋग्वेद, १/१६४/४५) परायामङ्कुरीभूय पश्यन्त्यां द्विदलीकृता॥१८॥ मध्यमायां मुकुलिता वैखर्या विकसीकृता॥ (योगकुण्डली उपनिषद्, ३/१८, १९) अक्षरं परमो नादः शब्दब्रह्मेति कथ्यते। मूलाधारगता शक्तिः स्वाधारा बिन्दुरूपिणी॥२॥ तस्यामुत्पद्यते नादः सूक्ष्मबीजादिवाङ्कुरः। तां पश्यन्तीं विदुर्विश्वं यया पश्यन्ति योगिनः॥३॥ हृदये व्यज्यते घोषो गर्जत्पर्जन्यसंनिभः। तत्र स्थिता सुरेशान मध्यमेत्यभिधीयते॥४॥ प्राणेन च स्वराख्येन प्रथिता

नर्क मुक्ति बृक्ष

स्कन्द पुराण में एक अद्भुत श्लोक है: अश्वत्थमेकम् पिचुमन्दमेकम् न्यग्रोधमेकम्  दश चिञ्चिणीकान् । कपित्थबिल्वाऽऽमलकत्रयञ्च पञ्चाऽऽम्रमुप्त्वा नरकन्न पश्येत्।। अश्वत्थः = पीपल पिचुमन्दः = नीम न्यग्रोधः = वट वृक्ष चिञ्चिणी = इमली कपित्थः =Wood apple बिल्वः = बेल आमलकः = आंवला आम्रः = आम उप्ति = पेड़/पौधे लगाना जो भी इन सारे वृक्षों का वृक्षारोपण करता है उसे कभी भी नर्क का दर्शन नहीं होता है। अर्थात उसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है। आपसे विनम्र प्रार्थना है कि एक पेड़ बरसात मैं  अवश्य लगाएं

विवाह में गोत्र, गण तथा प्रवर का शास्त्रीय विचार------------------------------------------------------------

नमो धर्माय महते वेदाय च स्वयम्भुवे । ऋषिभ्यश्च ब्राह्मणेभ्यो वेदविद्भ्यो नमोनमः।। वैदिक-सनातन-वर्णाश्रमधर्म में शास्त्रानुसार-- समान-गोत्र में विवाह निषेध है। समान-गण में विवाह निषेध है। समान-प्रवर में विवाह निषेध है। समान प्रवर का विशेष नियम- पञ्चानां त्रिषु सामान्यादविवाहस्त्रिषु द्वयोः । भृग्वङ्गिरो-गणेष्वेवं शेषेष्वेकोऽपि वारयेत्।।-प्रावरिकासूत्रम्। भृगु तथा अङ्गिरोगण में अधिक प्रवर अर्थात् ५ में ३ तथा ३ में २ प्रवर समान होने पर समानप्रवर माना जाता है और विवाह नहीँ होता है। कम प्रवर अर्थात् ५ में २ तथा ३ में १ प्रवर समान होने पर विवाह हो सकता है । अवशिष्ट अन्य सभी गणों में अर्थात् वसिष्ठ, कश्यप, भरद्वाज, विश्वामित्र, अत्रि, अगस्त्य - इन गणों  में तो ५ प्रवरों में से १ अथवा ३ प्रवरों में से १ प्रवर समान होने पर भी समानप्रवर माना जाता है और विवाह निषिद्ध होता है। इति वैदिकशास्त्रव्यवस्था।            

शिव मंत्रो का जप एवम पुरश्चरण

*शिवमन्त्रों का जप एवं पुरश्चरण* मन्त्रजप से पूर्व जो - जो शास्त्रीय क्रियाएं की जाती हैं ये बहुत लम्बी, समय लेनेपाली, कष्टसाध्य एवं दुरुह है। जनसामान्य  तो क्या मूर्द्धन्य  आचार्यों द्वारा भी ये सभी कियाएं संपादित करना अगर असम्भव नहीं तो अवश्य कठिनता मे पूरी होनेवाली हैं। सभी प्रकार के मन्त्रानुष्ठान के क्रमिक सोपान निम्नलिन्वित है। यहाँ पर इन अंगों की केवल रूपरेखा ही दी जायगी। विस्तृत वर्णन के लिये अनुष्ठानप्रकाश:' आदि ग्रन्थ देवे जा सकते हैं। *मन्त्रजप के सोपान* 1- अगर व्यक्ति म्गय मन्त्रानुष्ठान के योग्य नहीं है अथवा असमर्थ है तो सबसे पहले उसे आचार्य को वरण करना होगा। सभी शास्त्रीय विधियों को सम्पन्न करके ही आचार्य का वरण किया जाता है। 2- स्नानादि नित्यकर्म से निवृत हो पूजा - स्थान पर जाकर पैर धोकर आचमन के अनन्तर द्वार की पूजा शास्त्रीय विधि से करें। 3- तदनन्तर देवताविशेष से संबंधित द्वारपालों की विधिपूर्वक पूजा करें। उदाहरण के लिये शिवमन्त्रों के अनुष्ठान के समय नन्दी, महाकाल, गणेश, भृगी, स्कद, चण्डेश्वर आदि की -द्वारपालो के बाद इन्नादि सभी दिग्पालो की शास्त्रीय रीति से पूजा क

शक्तिसूत्राणि

भगवदगस्त्यविरचितानि शक्तिसूत्राणि   जिस प्रकार "शिव-सूत्र", "ब्रह्म-सूत्र", और "गणपति-सूत्र" है उसी प्रकार से "शक्ति-सूत्र" भी है। शाक्त-दर्शन के अनुसार "प्रकृति" ही ब्रह्म है। "श्रीविद्योपासक" अगस्त्य ऋषि द्वारा प्रणीत "शक्ति-सूत्र" निम्मन है: अथातः शक्तिसूत्रणि ॥१॥ यत् कर्त्रि ॥२॥ यदजा ॥३॥ नान्तरयोऽत्र ॥४॥ तत्सान्निध्यात् ॥५॥ तत्कल्पकत्वमौपाधिकम् ॥६॥ समानधर्मत्वान् ॥७॥ तच्च प्रातिभासिकम् ॥८॥ यद्बन्धः ॥९॥ यदारोपध्यासादैक्यम् ॥१०॥ शब्दाधिष्टानलिङ्गम् ॥११॥ नानावान् ॥१२॥ तच्च कालिकम् ॥१३॥ अखण्डोपाधे ॥१४॥ यामेव भूतानि विशन्ति ॥१५॥ यदोतम् यत्प्रोतम् ॥१६॥ तद्विष्णुत्वात् ॥१७॥ ततो जगन्ति कियन्ति ॥१८॥ नानात्वेऽप्येकत्वम्विरूद्धम् ॥१९॥ विचारात् ॥२०॥ यस्माददृश्यम् दृश्यञ्च ॥२१॥ दृष्टित्वव्यपदेशद्वा ॥२२॥ अविनाभावित्वात् ॥२३॥ भिन्नत्वे नानियाम्यत्वे ॥२४॥ अतथाविधा ॥२५॥ यत् कृतिः ॥२६॥ इच्छाज्ञानक्रियास्वरूपत्वात् ॥२७॥ न सन्नासत् ॥२८॥ सदसत्त्वात् ॥२९॥ तद् भ्रान्तिः ॥३०॥ यत् सत् ॥३१॥ इदानीमुपाधिविचारः क्रियते ॥३२॥ लीयत तत्रैकदेशप्र

कौलोपनिषत

_*॥ कौलोपनिषत् ॥*_ _*॥ श्रीः ॥*_ _*कौलोपनिषत्।*_ _*शन्नः कौलिकः शन्नो वारुणी शन्नः शुद्धिः शन्नो।*_ _*आग्निश्शन्नः सर्वं समभवत्।*_ _*नमो ब्रह्मणे नमः पृथिव्यै नमोऽद्भ्यो*_  _*नमोऽग्नये नमो वायवे नमो गुरुभ्यः।*_ _*त्वमेव प्रत्यक्षं सैवासि।*_ _*त्वामेव प्रत्यक्षं तां वदिष्यामि।*_ _*ऋतं वदिष्यामि।*_ _*सत्यं वदिष्यामि।*_ _*तन्मामवतु।*_ _*तद्वक्तारमवतु।*_ _*अवतु माम्।*_ _*अवतु वक्तारम्।*_ _*ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।*_ _*अथातो धर्मजिज्ञासा।*_ _*ज्ञानं बुद्धिश्च।*_ _*ज्ञानं मोक्षैककारणम्।*_ _*मोक्षस्सर्वात्मतासिद्धिः।*_ _*पञ्च विषयाः प्रपञ्चः।*_ _*तेषां ज्ञानस्वरूपाः।*_ _*योगो मोक्षः।*_ _*अधर्मकारणाज्ञानमेव ज्ञानम्।*_ _*प्रपञ्च ईश्वरः।*_ _*अनित्यं नित्यम्।*_ _*अज्ञानं ज्ञानम्।*_ _*अधर्म एव धर्मः।*_ _*एष मोक्षः।*_ _*पञ्च बन्धा ज्ञानस्वरूपाः।*_ _*पिण्डाज्जननम्।*_ _*तत्रैव मोक्षः।*_ _*एतज्ज्ञानम्।*_ _*सर्वेन्द्रियाणां नयनं प्रधानम्।*_ _*धर्मविरुद्धाः कार्य्याः।*_ _*धर्मविहिता न कार्य्याः।*_ _*सर्वं शाम्भवीरूपम्।*_ _*आम्नाया न विद्यन्ते।*_ _*गुरुरेकः।*_ _*सर्वैक्यताबुद्धिमन्ते।*_ _*आमन्त्रसिद्धे

लिंग उपासना

*लिंगोपासना*  निर्गुण-निराकार रूप में शिवलिंगोपासना की विशेष महिमा पुराणों में बतायी गयी है। पूजन के पूर्व नव निर्मित शिवलिंग की प्रतिष्ठा करनी चाहिए। वाण लिंग एवं नर्मदेश्वर लिंग स्वप्रतिष्ठित माने जाते हैं। इसके अतिरिक्त मन्दिर आदि स्थानों में पूर्व प्रतिष्ठित लिंग, स्वयम्भू लिंग तथा ज्योतिर्लिंग आदि देवों की उपासना में विशेष रूप से पार्थिव-लिंग-पूजन में प्रतिष्ठा तथा आवाहन विसर्जन आवश्यक होता है। शास्त्रों में यहाँ तक विवेचित है कि शिवलिंग में सभी देवताओं का पूजन किया जा सकता है- *शिवचलिंगेऽपि सर्वेषां देवानां पूजनं भवेत् ।* *सर्वलोकमये अस्माच्छिवशक्तिर्विभुः प्रभुः ।।* द्रष्टव्य बृहद्धर्मपुराण, अ. 57 /16 पुराण ग्रन्थों का अनुशीलन करने से शिवोपासना के परिप्रेक्ष्य में लिंग के स्वरूप, निर्माण उपासना विधि तथा उसके महत्ता का विशद् विवेचन मिलता है। कूर्म पुराण में लिंग को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि जिसमें सभी कुछ लय हो जायें, वही लिंग है वही ब्रह्म शरीर ही है। स्कन्द पुराण में 'लयनाल्लिंगमुच्यते' कहा है जिसका अर्थ लय या प्रलय होता है, इसीलिए उसे लिंग कहते हैं। प्रलय का लिंग