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स्त्री_शब्दकी_व्युत्पत्ति

श्रीराम! स्त्री-- *शुक्रशोणितसङ्घाताश्रयत्वम् स्त्रीत्वम्।* #स्त्यै शब्दसङ्घातयो: धातो: #स्तायतेर्ड्रट् इत्यनेन #ड्रट् प्रत्ययः। अनु.लोपः।  स्त्यै + र, डित्त्वात् प्रकृते: टेर्लोपः -- स्त्य् र, #लोपो_व्योर्वलि इति य् लोपः--स्त्र। पुनः स्त्रीत्वविवक्षायाम्  टित्त्वाद् #ङीप्-- स्त्र+ङीप्, अनु.लोपः। #यस्येति_च"  इति अल्लोपः-- स्त्री।     अस्य व्युत्पत्ति:-- स्त्यायतः सङ्गते भवतः शुक्रशोणिते अस्याम् इति स्त्री।  --जिसमें शुक्र शोणित (रज:) सङ्घात ( मिश्रण/मेल) को प्राप्त होते हैं, वह स्त्री है।         यहाँ प्रश्न यह उठता है-- जिन में शुक्र शोणित का मेल गर्भाधान) नहीं होता, अविवाहित रहने वालीं या साध्वियाँ,  क्या वे स्त्रियाँ नहीं हैं?     अथवा यह व्युत्पत्ति ही त्रुटित है? या कोई और सङ्गति है? यहाँ यह ध्यातव्य है कि किसी रोग व्याधि आदि उपाधि/निमित्तसे यदि किन्हींमें सङ्घात नहीं होता है, तो उनके  विषय में यह व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ  अव्याप्त नहीं होता।        चाहे साध्वियाँ हों, ब्रह्मचारिणियाँ, हों या अन्य कोई, वस्तुतः सभी स्त्रियाँ ही हैं। #शुक्रशोणितसङ्घाताश्रयतायोग्यत्वम्" इस प्र

ॐ कार

ॐ कार स्वरूप ओमकार विंदु संयुक्तम नित्यं ध्यायन्ति योगिनः। कामदं मोक्षदम चैव ओमकराय नमो नमः।। ओंकार की सतत साधना पूरी सृष्टि से अपनी आत्मीयता उजागर कर जीवन का कायाकल्प कर सकती है। ओंकार ध्वनि ‘ॐ’ को दुनिया के सभी मंत्रों का सार कहा गया है. यह उच्चारण के साथ ही शरीर पर सकारात्मक प्रभाव छोड़ती है. भारतीय सभ्यता के प्रारंभ से ही ओंकार ध्वनि के महत्त्व से सभी परिचित रहे हैं. पांच अवयव- ‘अ’ से अकार, ‘उ’ से उकार एवं ‘म’ से मकार, ‘नाद’ और ‘बिंदु’ इन पांचों को मिलाकर ‘ओम’ एकाक्षरी मंत्र बनता है. ओम को "प्रथम ध्वनि" माना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि भ्रमंड में भौतिक निर्माण के अस्तित्व में आने से पहले जो प्राकृतिक ध्वनि थी, वह थी ओम की गूँज। इस लिए ओम को ब्रह्मांड की आवाज कहा जाता है। इसका क्या मतलब है? किसी तरह प्राचीन योगियों को पता था जो आज वैज्ञानिक हमें बता रहें हैं: ब्रह्मांड स्थायी नहीं है। ॐ शब्द तीन ध्वनियों से बना हुआ है- अ, उ, म इन तीनों ध्वनियों का अर्थ उपनिषद में भी आता है. यह ब्रह्मा, विष्णु और महेश का प्रतीक भी है और यह भू: लोक, भूव: लोक और स्वर्ग लोग का प्रतीक है. तंत्र

पंचाक्षर मन्त्र के ऋषि, छन्द, देवता और ध्यान :-

पंचाक्षर मन्त्र के ऋषि, छन्द, देवता और ध्यान :- पंचाक्षर मन्त्र के ऋषि वामदेव, छन्द पंक्ति व देवता शिव हैं। आसन लगाकर पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके इस मन्त्र का जप करना चाहिए। रुद्राक्ष की माला से जप का अनन्तगुणा फल मिलता है। स्त्री, शूद्र आदि सभी इस मन्त्र का जप कर सकते हैं। इस मन्त्र के लिए दीक्षा, होम, संस्कार, तर्पण और गुरुमुख से उपदेश की आवश्यकता नहीं है। यह मन्त्र सदा पवित्र है | लिंगपुराण में कहा गया हैं ‘जो बिना भोजन किए एकाग्रचित्त होकर आजीवन इस मन्त्र का नित्य एक हजार आठ बार जप करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है’। इस मन्त्र के लिए लग्न, तिथि, नक्षत्र, वार और योग का विचार नहीं किया जाता। यह मन्त्र कभी सुप्त नहीं होता, सदा जाग्रत ही रहता है। अत: पंचाक्षर मन्त्र ऐसा है जिसका अनुष्ठान सब लोग सब अवस्थाओं में कर सकते हैं। श्री शिव पंचाक्षर स्तोत्र के पाँचों श्लोकों में क्रमशः न, म, शि, वा और य, मुख्यतः पांच शब्दों का वर्णन हैं। न, म, शि, वा एवं य अर्थात् "नम: शिवाय"। अतः यह पंचाक्षर स्तोत्र शिवस्वरूप है। जो कोई शिव के समीप इस पवित्र पंचाक्षर मंत्र का नित्य ध्यान अथवा

आमंत और पूर्णिमांत

खगोल स्वयं में विज्ञान है. आकाश में टिमटिमाते तारों की बाह्य -अंत: प्रवृत्तियों का बिना वैज्ञानिक यंत्रों का अध्ययन कर हमारे पूर्वजों ने बहुत पहले अनेक खगोलीय रहस्यों का उद्घाटन कर दिया था, जिसे हम ज्योतिष विद्या के नाम से जानते हैं. अनगिनत नक्षत्रों में से कुछ समूहों को विशेष नाम देकर अपनी विद्या और लोक कल्याण में उनको जोड़ा. ऐसे ही नक्षत्र-समूहों में हैं- अश्विनी, भरणी आदि 27 (अभिजित को लेकर 28) नक्षत्र हैं. ज्योतिष के ये मुख्य आधार हैं. सबसे बड़ी बात कि हमारे महीनों के नाम के भी ये ही आधार हैं. चंद्रमा का इन पर संचरण से चांद्र मास और सूर्य के संचरण से सौर मास बनता है. हमारे चैत्र आदि महीनों के नाम चित्रा आदि नक्षत्रों के नाम पर ही पड़ा है. प्रायः चंद्रमा कृष्ण प्रतिपदा से शुक्ल पक्ष की अंतिम तिथि अर्थात् पूर्णिमा को उसी नक्षत्र पर आ जाता है, जिसके नाम पर वह महीना बना है. नारद जी का भी कथन है - यस्मिन् मासे पौर्णमासी येन धिष्ण्येन संयुता। तन्नक्षत्राह्वयो मासः पौर्णमासःतथाह्वयः।। अर्थात पूर्णिमांत मास जिस नक्षत्र से युक्त होता है, यानी पूर्णिमा को जो नक्षत्र रहता है, उसी नाम पर उस महीने