सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

अप्रैल, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मनुस्मृति और शूद्र

*मनुस्मृति और शूद्र -* भारत में आज अनेक संकट छाये हुए हैं – भ्रष्टाचार, आतंकवाद, कट्टरवाद, धर्मांतरण, नैतिक अध : पतन, अशिक्षा, चरमरायी हुई स्वास्थ्य व्यवस्था, सफ़ाई की समस्या वगैरह – वगैरह | पर इन सभी से ज्यादा भयावह है – जन्मना जातिवाद और लिंग भेद | क्योंकि यह दो मूलभूत समस्याएँ ही बाकी समस्याओं को पनपने में मदद करती हैं | यह दो प्रश्न ही हमारे भूत और वर्तमान की समस्त आपदाओं का मुख्य कारण हैं |  इन को मूल से ही नष्ट नहीं किया तो हमारा उज्जवल भविष्य सिर्फ़ एक सपना बनकर रह जाएगा क्योंकि एक समृद्ध और समर्थ समाज का अस्तित्व जाति प्रथा और लिंग भेद के साथ नहीं हो सकता | यह भी गौर किया जाना चाहिए कि जाति भेद और लिंग भेद केवल हिन्दू समाज की ही समस्याएँ नहीं हैं किन्तु यह दोनों सांस्कृतिक समस्याएँ हैं | लिंग भेद सदियों से वैश्विक समस्या रही है और जाति भेद दक्षिण एशिया में पनपी हुई, सभी धर्मों और समाजों को छूती हुई समस्या है | चूँकि सनातन वेद सबसे प्राचीन संस्कृति और सभी धर्मों का आदिस्रोत है, इसी पर व्यवस्था को भ्रष्ट करने का आक्षेप मढ़ा जाता है | यदि इन दो कुप्रथाओं को हम ढोते रहते हैं तो समा

संध्या तत्व विमर्श

*संध्या तत्त्व विमर्श* भाग-१ *ॐकारप्रौढमूलः क्रमपदसहितश्छन्दविस्तीर्णशाख* *ऋक्पत्रः सामपुष्पो यजुरधिकफलोऽथर्वगन्धं दधानः।* *यज्ञच्छायासमेतो द्विजमधुपगणैः सेव्यमानः प्रभाते* *मध्ये सायं त्रिकालं सुचरितचरितः पातु वो वेदवृक्षः॥* परमात्माको प्राप्त किये अथवा जाने बिना जीवनकी भवबन्धनसे मुक्ति नहीं हो सकती। यह सभी ऋषि-महर्षियोंका निश्चित मत है। उनके ज्ञानका सबसे सहज, उत्तम और प्रारम्भिक साधन है- *संध्योपासना*। संध्योपासना द्विजमात्रके लिये परम आवश्यक कर्म है। इसकी अवहेलनासे पाप होता है और पालनसे अन्तःकरण शुद्ध होकर परमात्मसाक्षात्कारका अधिकारी बन जाता है।  तन-मनसे संध्योपासनाका आश्रय लेनेवाले द्विजको स्वल्पकालमें ही परमेश्वरकी प्राप्ति हो जाती है। अतः द्विजातिमात्रको संध्योपासनामें कभी प्रमाद नहीं करना चाहिये। *संध्योपासनाका अर्थ* संध्योपासनामें दो शब्द हैं—संध्या और उपासना। संध्याका प्रायः तीन अर्थों में व्यवहार होता है-१-संध्याकाल, २- संध्याकर्म और ३-सूर्यस्वरूप ब्रह्म (परमात्मा)। तीनों ही अर्थोके समर्थक शास्त्रीय वचन उपलब्ध होते हैं- *अहोरात्रस्य यः संधिः सूर्यनक्षत्रवर्जितः।* *सा तु संध्

श्री मंगल चंडिका

●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●         ❗❗ *आचार्य रुद्रेश्वरन* ❗❗ ●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬● 👉🏻 प्रिय पाठकों-------  ।। श्री मंगलचंडिकास्तोत्रम् ।। ध्यान “ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं सर्वपूज्ये देवी मङ्गलचण्डिके I  ऐं क्रूं फट् स्वाहेत्येवं चाप्येकविन्शाक्षरो मनुः II  पूज्यः कल्पतरुश्चैव भक्तानां सर्वकामदः I दशलक्षजपेनैव मन्त्रसिद्धिर्भवेन्नृणाम् II मन्त्रसिद्धिर्भवेद् यस्य स विष्णुः सर्वकामदः I ध्यानं च श्रूयतां ब्रह्मन् वेदोक्तं सर्व सम्मतम् II  देवीं षोडशवर्षीयां शश्वत्सुस्थिरयौवनाम् I  सर्वरूपगुणाढ्यां च कोमलाङ्गीं मनोहराम् II  श्वेतचम्पकवर्णाभां चन्द्रकोटिसमप्रभाम् I वन्हिशुद्धांशुकाधानां रत्नभूषणभूषिताम् II  बिभ्रतीं कबरीभारं मल्लिकामाल्यभूषितम् I बिम्बोष्टिं सुदतीं शुद्धां शरत्पद्मनिभाननाम् II  ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां सुनीलोल्पललोचनाम् I  जगद्धात्रीं च दात्रीं च सर्वेभ्यः सर्वसंपदाम् II  संसारसागरे घोरे पोतरुपां वरां भजे II  देव्याश्च ध्यानमित्येवं स्तवनं श्रूयतां मुने I प्रयतः संकटग्रस्तो येन तुष्टाव शंकरः II || शंकर उवाच || रक्ष रक्ष जगन्मातर्देवि मङ्गलचण्डिके I हारिके विपदां राशेर्हर्षमङ्गलकारिके II हर्ष

संकट मोचन हनुमान स्तोत्र

●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●         ❗❗ *आचार्य रुद्रेश्वरन* ❗❗ ●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬● 👉🏻 प्रिय पाठकों-------  संकट मोचन हनुमान स्तोत्र काहे विलम्ब करो अंजनी-सुत । संकट बेगि में होहु सहाई ।। नहिं जप जोग न ध्यान करो । तुम्हरे पद पंकज में सिर नाई ।। खेलत खात अचेत फिरौं । ममता-मद-लोभ रहे तन छाई ।। हेरत पन्थ रहो निसि वासर । कारण कौन विलम्बु लगाई ।। काहे विलम्ब करो अंजनी सुत । संकट बेगि में होहु सहाई ।। जो अब आरत होई पुकारत । राखि लेहु यम फांस बचाई ।। रावण गर्वहने दश मस्तक । घेरि लंगूर की कोट बनाई ।। निशिचर मारि विध्वंस कियो । घृत लाइ लंगूर ने लंक जराई ।। जाइ पाताल हने अहिरावण । देविहिं टारि पाताल पठाई ।। वै भुज काह भये हनुमन्त । लियो जिहि ते सब संत बचाई ।। औगुन मोर क्षमा करु साहेब । जानिपरी भुज की प्रभुताई ।। भवन आधार बिना घृत दीपक । टूटी पर यम त्रास दिखाई ।। काहि पुकार करो यही औसर । भूलि गई जिय की चतुराई ।। गाढ़ परे सुख देत तु हीं प्रभु । रोषित देखि के जात डेराई ।। छाड़े हैं माता पिता परिवार । पराई गही शरणागत आई ।। जन्म अकारथ जात चले । अनुमान बिना नहीं कोउ सहाई ।। मझधारहिं मम बेड़ी अड़ी । भ

आभूषणों का उपयोग कैसे करें

किसके आभूषण कहाँ पहनें ? सोने के आभूषणें की प्रकृति गर्म है तथा चाँदी के गहनों की प्रकृति शीतल है। यही कारण है कि सोने के गहने नाभि से ऊपर और चाँदी के गहने नाभि के नीचे पहनने चाहिए। सोने के आभूषणों से उत्पन्न हुई बिजली पैरों में तथा चाँदी के आभूषणों से उत्पन्न होने वाली ठंडक सिर में चली जायेगी क्योंकि सर्दी गर्मी को खींच लिया करती है। इस तरह से सिर को ठंडा व पैरों को गर्म रखने के मूल्यवान चिकित्सकीय नियम का पूर्ण पालन हो जायेगा। इसके विपरीत करने वालों को शारीरिक एवं मानसिक बिमारीयाँ होती हैं। जो स्त्रियाँ सोने के पतरे का खोल बनवाकर भीतर चाँदी, ताँबा या जस्ते की धातुएँ भरवाकर कड़े, हंसली आदि आभूषण धारण करती हैं, वे हकीकत में तो बहुत बड़ी त्रुटि करती हैं। वे सरे आम रोगों को एवं विकृतियों को आमंत्रित करने का कार्य करती हैं। सदैव टाँकारहित आभूषण पहनने चाहिए। यदि टाँका हो तो उसी धातु का होना चाहिए जिससे गहना बना हो। माँग में सिंदूर भरने से मस्तिष्क संबंधी क्रियाएँ नियंत्रित, संतुलित तथा नियमित रहती हैं एवं मस्तिष्कीय विकार नष्ट हो जाते हैं। शुक्राचार्य जी के अनुसार पुत्र की कामना वाली स्त्र

गुप्त सिद्धकुंजिका वीसा यंत्र

‘कुंजिका स्तोत्र’ और ‘बीसा यन्त्र’ ‘कुंजिका स्तोत्र’ और ‘बीसा यन्त्र’ का अनुभूत अनुष्ठान प्राण-प्रतिष्ठा करने के पर्व चन्द्र ग्रहण, सूर्य ग्रहण, दीपावली के तीन दिन (धन तेरस, चर्तुदशी, अमावस्या), रवि-पुष्य योग, रवि-मूल योग तथा महानवमी के दिन ‘रजत-यन्त्र’ की प्राण प्रतिष्ठा, पूजादि विधान करें। इनमे से जो समय आपको मिले, साधना प्रारम्भ करें। 41 दिन तक विधि-पूर्वक पूजादि करने से सिद्धि होती है। 42 वें दिन नहा-धोकर अष्टगन्ध (चन्दन, अगर, केशर, कुंकुम, गोरोचन, शिलारस, जटामांसी तथा कपूर) से स्वच्छ 41 यन्त्र बनाएँ। पहला यन्त्र अपने गले में धारण करें। बाकी आवश्यकतानुसार बाँट दें। प्राण-प्रतिष्ठा विधि सर्व-प्रथम किसी स्वर्णकार से 15 ग्राम का तीन इंच का चौकोर चाँदी का पत्र (यन्त्र) बनवाएँ। अनुष्ठान प्रारम्भ करने के दिन ब्राह्म-मुहूर्त्त में उठकर, स्नान करके सफेद धोती-कुरता पहनें। कुशा का आसन बिछाकर उसके ऊपर मृग-छाला बिछाएँ। यदि मृग छाला न मिले, तो कम्बल बिछाएँ, उसके ऊपर पूर्व को मुख कर बैठ जाएँ। अपने सामने लकड़ी का पाटा रखें। पाटे पर लाल कपड़ा बिछाकर उस पर एक थाली (स्टील की नह

देव परिक्रमा कितनी करें।

●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●         ❗❗ *आचार्य रुद्रेश्वरन* ❗❗ ●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬● 👉🏻 प्रिय पाठकों-------  सूर्य देव की सात,  श्रीगणेश की चार,  भगवान विष्णु और उनके सभी अवतारों की चार,  देवी दुर्गा की एक, हनुमानजी की तीन,  शिवजी की आधी प्रदक्षिणा करने का नियम है। शिवजी की आधी प्रदक्षिणा ही की जाती है, इस संबंध में मान्यता है कि जलधारी को लांघना नहीं चाहिए। जलधारी तक पंहुचकर परिक्रमा को पूर्ण मान लिया जाता है।                                        सम्पूर्ण---🖌              ●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬● आप हमारे अन्य प्रसारण माध्यम से जुड़ सकते है , 📡 ब्लॉग Aachary Rudreswaran  👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻       http://mangalamshiva.blogspot.com/?m=1 📡 टेलीग्राम 👇🏼👇🏼👇🏼👇🏼👇🏼👇🏼👇🏼👇🏼👇🏼👇🏼 https://t.me/AacharyRudreshwaran   📡  शिव सायुज्य 👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻 https://t.me/shivsayujy 📡 व्हाट्सअप 👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻 आचार्य रुद्रेश्वरन-9956973754 आचार्य देव शुक्ल-7607121234 🔝🔝🔝🔝🔝🔝🔝🔝🔝 उपर के किसी भी एक नंबर पर YES शब्द लिख कर भेजें और आप अधिक से

दुर्गा सप्तशती पाठ विधि

श्री दुर्गा सप्तशती श्री दुर्गा सप्तशती के पाठ करने का अलग विधान है। कुछ अध्यायों में उच्च स्वर, कुछ में मंद और कुछ में शांत मुद्रा में बैठकर पाठ करना श्रेष्ठ माना गया है। जैसे कीलक मंत्र को शांत मुद्रा में बैठकर मानसिक पाठ करना श्रेष्ठ है। देवी कवच उच्च स्वर में और श्रीअर्गला स्तोत्र का प्रारम्भ उच्च स्वर और समापन शांत मुद्रा से करना चाहिए। देवी भगवती के कुछ मंत्र यंत्र, मंत्र और तंत्र क्रिया के हैं। संपूर्ण दुर्गा सप्तशती स्वर विज्ञान का एक हिस्सा है। वाकार विधि:  प्रथम दिन एक पाठ प्रथम अध्याय, दूसरे दिन दो पाठ द्वितीय, तृतीय अध्याय, तीसरे दिन एक पाठ चतुर्थ अध्याय, चौथे दिन चार पाठ पंचम, षष्ठ, सप्तम व अष्टम अध्याय, पांचवें दिन दो अध्यायों का पाठ नवम, दशम अध्याय, छठे दिन ग्यारहवां अध्याय, सातवें दिन दो पाठ द्वादश एवं त्रयोदश अध्याय करके एक आवृति सप्तशती की होती है।  संपुट पाठ विधि:  किसी विशेष प्रयोजन हेतु विशेष मंत्र से एक बार ऊपर तथा एक नीचे बांधना उदाहरण हेतु संपुट मंत्र मूलमंत्र-1, संपुट मंत्र फिर मूलमंत्र अंत में पुनः संपुट मंत्र आदि इस विधि में समय अधिक लगता है। लेकिन यह अतिफलदा

सरस्वती स्तोत्र

सरस्वती स्त्रोत्र  🔸🔸🔹🔹 ॐ रवि-रुद्र-पितामह-विष्णु-नुतं, हरि-चन्दन-कुंकुम-पंक-युतम्! मुनि-वृन्द-गजेन्द्र-समान-युतं, तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्॥1॥  शशि-शुद्ध-सुधा-हिम-धाम-युतं, शरदम्बर-बिम्ब-समान-करम्। बहु-रत्न-मनोहर-कान्ति-युतं, तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्॥2॥  कनकाब्ज-विभूषित-भीति-युतं, भव-भाव-विभावित-भिन्न-पदम्। प्रभु-चित्त-समाहित-साधु-पदं, तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्॥3॥  मति-हीन-जनाश्रय-पारमिदं, सकलागम-भाषित-भिन्न-पदम्। परि-पूरित-विशवमनेक-भवं, तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्॥4॥  सुर-मौलि-मणि-द्युति-शुभ्र-करं, विषयादि-महा-भय-वर्ण-हरम्। निज-कान्ति-विलायित-चन्द्र-शिवं, तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्॥5॥  भव-सागर-मज्जन-भीति-नुतं, प्रति-पादित-सन्तति-कारमिदम्। विमलादिक-शुद्ध-विशुद्ध-पदं, तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्॥6॥  परिपूर्ण-मनोरथ-धाम-निधिं, परमार्थ-विचार-विवेक-विधिम्। सुर-योषित-सेवित-पाद-तमं, तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्॥7॥  गुणनैक-कुल-स्थिति-भीति-पदं, गुण-गौरव-गर्वित-सत्य-पदम्। कमलोदर-कोमल-पाद-तलं,तव नौमि सरस्वति! पाद-युगम्॥8॥   माँ सरस्वती की पूर्ण कृपा  एवं मोक्ष प्राप्त करने हेतु इस स्तोत्र का

सर्प भय परिहार मंत्र

।सर्प भय परिहार मन्त्र::।। माभिभेर्न मरिष्यसि परित्वा पामी सरवत:। घनेन हन्मि वृस्चिक महि दंडेनागतम् ।। आदित्य रथवेगेन विष्णुबाहुबलेन   च। गरुड़ पक्षनिपातेन भुमि गच्छ  महायशा:।। गरुडस्य पातमात्रेण त्रयो लोका: प्रकंपिता:। प्रकंपिता मही सरवा सशैलवनकनना।। गगनं नष्ट चंद्रार्क ज्योतिषं  न प्रकाशते ।  देवता भय भीताश्च मारुतो  न प्लवायति।। मारुतो    न  प्लवायत्यों           नम:।। भयो सरप भद्र भद्रं ते दुरं गच्छ महाविष। जन्मेजयस्य यज्ञांते आस्तिकवचनं स्मर ।। आस्तिक वचनं श्रुत्वा य: सरपोन निवर्तते । शताधाभिधाते मुदिर्न शिंशवृक्ष फलं यथा।। नरमदायै नम:  प्रातर्नमदायै नमोनिशी। नमोस्तु नरमदे तुभ्यं त्राहिमां विष सरपत:।। यो जरत्कारुणो जातो जरत्कार्वा महायशा:। तस्य स्मरामि भद्रंते दुरं गच्छ महाविष।। असितिं चार्थसिध्दीं च सुनितिं चापि य: स्मरेत। दिवा वा यदिवारात्रो नास्ति सरपभयं भवेत् ।। अगस्तिर्माधवश्चैव मुचुकुंदो महामुनि:। कपिलो मुनिरास्तिक : पंचैत सुखशायिन:।। साधना सिध्दि विज्ञानवाट          

चंद्रदर्शन पौराणिक और ज्योतिषीय महत्त्व

*चंद्रदर्शन पौराणिक और ज्योतिषीय महत्त्व* 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️ चंद्रदर्शन का पौराणिक काल से हिंदु धर्म में काफी महत्व रहा है क्योंकि चद्रंमा को देवता समान माना जाता है। चंद्र दर्शन का अर्थ चन्द्रमा का दर्शन करना। इसे चंद्र दर्शन इसलिये कहा जाता है क्योंकि इसे प्रायः अमावस्या के बाद की द्वितीया के दिन देखा जाता है। भगवान शंकर की जटाओं में भी द्वितीया का चंद्र विराजमान होने से इसका आध्यात्मिक और शारीरिक रूप से महत्त्व बढ़ जाता है। क्या करते हैं इस दिन  हिंदू धर्म में चंद्र दर्शन एक बहुत ही आवश्यक महत्व रखता है। मान्यताओं के अनुसार, इस दिन का एक धार्मिक महत्व है। इस विशेष दिन भगवान चंद्रमा की पूजा पूरी श्रद्धा के साथ की जाती है। हिंदू धर्म के अनुसार इस दिन चंद्रमा का दर्शन करना बहुत ही फलदायी होता है। साथ-ही-साथ इसे भाग्यशाली और समृद्धि का घोतक भी माना जाता है। चंद्र दर्शन को हिंदुं धर्म में भगवान चंद्रमा की तरह माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि चंद्रमा की पूजा करने से घर में सुख-शांति व स्मृद्धि आती है और अन्य देवता भी प्रसन्न होते हैं। भगवान चंन्द्रमा की पूजा घर में सफलता और सौभा

जानिए हठयोग के आचार्य गुरु गोरखनाथ जी के बारे में

*💥जानिए हठयोग के आचार्य गुरु गोरखनाथ जी के बारे में💥* गोरखनाथ या गोरक्षनाथ जी महाराज इस युग के साथ ही चारों युग के नाथ योगी थे। गुरु गोरखनाथ जी ने पूरे भारत का भ्रमण किया और अनेकों ग्रन्थों की रचना की। गोरखनाथ जी का मन्दिर उत्तर प्रदेश के गोरखपुर नगर मे स्थित है। गोरखनाथ के नाम पर इस जिले का नाम गोरखपुर पडा है। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) थे। इन दोनों ने नाथ सम्प्रदाय को सुव्यवस्थित कर इसका विस्तार किया। इस सम्प्रदाय के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है। गुरु गोरखनाथ हठयोग के आचार्य थे। कहा जाता है कि एक बार गोरखनाथ समाधि में लीन थे। इन्हें गहन समाधि में देखकर माँ पार्वती ने भगवान शिव से उनके बारे में पूछा। शिवजी बोले, लोगों को योग शिक्षा देने के लिए ही उन्होंने गोरखनाथ के रूप में अवतार लिया है। इसलिए गोरखनाथ को शिव का अवतार भी माना जाता है। इन्हें चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। इनके उपदेशों में योग और शैव तंत्रों का सामंजस्य है। ये नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखनाथ की लिखी गद्य-पद्य की चालीस रचनाओं का परिचय प्राप्त है। इनकी रचन