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स्त्रिओं के खुले बाल शोक की निशानी

खुले_बाल , शोक और अशुद्दि की निशानी 🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔹🔸🔸🔹 आजकल माताये बहने फैशन के चलते कैसा अनर्थ कर रही है पुरा पढें       रामायण में बताया गया है, जब देवी सीता का श्रीराम से विवाह होने वाला था, उस समय उनकी माता सुनयना ने उनके बाल बांधते हुए उनसे कहा था, विवाह उपरांत सदा अपने केश बांध कर रखना।  बंधे हुए लंबे बाल आभूषण सिंगार होने के साथ साथ संस्कार व मर्यादा में रहना सिखाते हैं।  ये सौभाग्य की निशानी है ,   एकांत में केवळ अपने पति के लिए इन्हें खोलना। हजारो लाखो वर्ष पूर्व हमारे ऋषि मुनियो ने शोध कर यह अनुभव किया कि सिर के काले बाल को पिरामिड नुमा बनाकर सिर के उपरी ओर या शिखा के उपर रखने से वह सूर्य से निकली किरणो को अवशोषित  करके शरीर को ऊर्जा प्रदान करते है। जिससे चेहरे की आभा चमकदार , शरीर सुडौल व बलवान होता है। यही कारण है कि गुरुनानक देव व अन्य सिक्ख गुरूओ ने बाल रक्षा के असाधारण महत्त्व को समझकर धर्म का एक अंग ही बना लिया। लेकिन वे कभी भी बाल को खोलकर नही रखे ,  ऋषी मुनियो व साध्वीयो ने हमेशा बाल को बांध कर ही रखा। भारतीय आचार्यो ने बाल रक्षा का प्रयोग , साधना काल में ही किया

दक्षिणा काली

हर हर महादेव  प्रिय पाठकों महाकाल संहिता के मतानुसार आद्यशक्ति ही दक्षिणा काली हैं । शिवचंद्र विद्यार्नव में ऐसा कहते हैं कि पुरुष का नाम दक्षिण है और शक्ति का नाम वामा । जब तक यह वाम और दक्षिण समान रूप से अवस्थान करते हैं , तब तक संसार बंधन रहता है। साधना के प्रभाव से यह वामा शक्ति, जागृत होकर जब दक्षिण शक्ति पुरुष को भी विजीत कर लेती है और उनके ऊपर आरूढ़ होकर दक्षिणानंद में निमग्न हो जाती है तब उसके प्रभाव से दक्षिण तथा वाम दोनों से अंश ही पूर्ण तत्व की प्राप्ति कर लेते हैं और तभी वे दक्षिणा काली कही जाती। पक्षांतर से वे दक्षिणामूर्ति भैरव से आराधिता हो करके दक्षिणा काली हैं।  हर हर महादेव।

रुद्राक्ष

रुद्राक्ष शिव प्रभु को बहुत ही प्रिय है। इसे परम पावन समझना चाहिये। रुद्राक्षके दर्शनसे, स्पर्शसे तथा उसपर जप करनेसे वह समस्त पापोंका अपहरण करनेवाला माना गया है।  पूर्वकालमें 'परमात्मा शिवने समस्त लोकोंका उपकार करनेके लिये देवी पार्वतीके सामने रुद्राक्षकी महिमाका वर्णन किया था। भगवान् शिव बोले- महेश्वरि शिवे ! मैं तुम्हारे प्रेमवश भक्तोंके हितकी कामनासे रुद्राक्षकी महिमाका वर्णन करता हूँ, सुनो।  महेशानि! पूर्वकालकी बात है, मैं महारुद्र मनको संयममें रखकर हजारों दिव्य वर्षांतक गुणातीत  सदाशिव जी के ध्यान में रत होकर  घोर तपस्यामें लगा रहा। एक दिन सहसा मेरा मन क्षुब्ध हो उठा। परमेश्वरि! मैं सम्पूर्ण लोकोंका उपकार करनेवाला स्वतन्त्र परमेश्वर साक्षात् सदाशिव ही हूँ महारुद्र मेरा संहारक पर अति सौम्य स्वरूप है अतः उस समय मैंने लीलावश ही अपने दोनों नेत्र खोले, खोलते ही मेरे मनोहर नेत्रपुटोंसे कुछ जलकी बूँदें गिरीं ।  आँसूकी उन बूँदोंसे वहाँ रुद्राक्ष नामक वृक्ष पैदा हो गया। भक्तोंपर अनुग्रह करनेके लिये वे अश्रुबिन्दु स्थावरभावको प्राप्त हो गये। वे रुद्राक्ष मैंने विष्णुभक्तको तथा चारों वर्

भोजन करने के नियम

मनुस्मृति में कहा है-अन्नं ब्रह्म इत्युपासीत्। अर्थात अन्न ब्रह्म है यह समझकर उसकी उपासना करनी चाहिए। दोनों हाथ, दोनों पांव और मुख इन पांचों अंगों को जल का उपस्पर्श करके नित्य सावधान होकर अन्न को खाना चाहिए। भोजन के उपरांत भली प्रकार आचमन करना चाहिए तथा जल के द्वारा मुखस्थ छहों छिद्रों का स्पर्श करना चाहिए। नित्य प्रथम भोजन का पूजन करना चाहिए और बिना निंदा किए खाना चाहिए। भोजन को देखकर हर्ष-युक्त होना चाहिए और प्रसन्नतापूर्वक उसका अभिनंदन करना चाहिए। ब्रह्मवैवर्त पुराण ब्रह्मखंड में लिखा है-अन्नं ब्रह्मा रसो विष्णुर्भोक्ता देवो महेश्वर:। अर्थात अन्न ब्रह्म है, रस विष्णु है और खाने वाले महेश्वर हैं। अन्नं विष्टा जलं मूत्रं यद् विष्णोरनिवेदितम्।। अर्थात विष्णु भगवान को भोग न लगा अन्न विष्टा के समान है और जल मूत्र के तुल्य है। स्कंद पुराण में कहा गया है-अस् नायी समलं भुङक्ते अजपी पूयशोणितम्।सूय्र्यायाध्र्यमदत्वा च नर: किलिवषमश्नुते। अर्थात् बिना स्नान किए भोजन करना मल खाने के तुल्य है। बिना जप किए भोजन खाना राध, पीप, रुधिर सेवन करने के समान है और सूर्य को अर्घ्य दिए बिना भोजन करना पाप खान