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वर्ण ब्यवस्था

अधर्मेणैधते तावत्ततो भद्राणि पश्यति ।  ततः सपत्नान्जयति समूलस्तु विनश्यति । । जो पाप करता है वह पहले आर्थिक समृद्धि का प्राप्त करता हुआ प्रतीत होता है। उसके बाद बन्धु बान्धवों में मान सम्मान आदि भी दिखते हैं एवं कल्याणाभास भी प्रतीत होता है। वह अपने शत्रुओं को भी जीतता है किन्तु अन्त में पाप उसका जड सहित नाश कर देता है। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि नाधर्मश्चरितो लोके सद्यः फलति गौरिव ।  शनैरावर्त्यमानस्तु कर्तुर्मूलानि कृन्तति । । क्योंकि किया गया पापकर्म तत्काल फल नहीं देता है। इस संसार में जैसे गाय की सेवा का फल दूध आदि शीघ्र प्राप्त नहीं होता वैसे ही किये हुए अधर्म का फल भी शीघ्र नहीं होता। किन्तु धीरे – धीरे घुमता हुआ यह पाप फल पापकर्म कर्ता की जडों को काट देता है। न सीदन्नपि धर्मेण मनोऽधर्मे निवेशयेत् ।  अधार्मिकानां पापानां आशु पश्यन्विपर्ययम् । । किया गया पापकर्म कर्ता पर इस जन्म में न दीखे तो अगले जन्म मे दिखेगा। इस जन्म में उसके पुत्रों पर नहीं तो पौत्रों पर फल देगा पर यह निष्फल नहीं जायेगा ये निश्चित है।  आज आपके द्वारा ईश्वरकृत सनातनी वर्णव्यवस्था के विरूद्ध किया गया अधर्माचरण