*बिल्वपत्र का महात्म्य*
_【श्रीशिवमहापुराण विद्येश्वर संहिता अंतर्गत】_
बिल्ववृक्ष तो महादेवस्वरूप है, देवोंके द्वारा भी इसकी स्तुति की गयी है, अत: जिस किसी प्रकारसे उसकी महिमाको कैसे जाना जा सकता है।
महादेवस्वरूपोऽयं बिल्वो देवैरपि स्तुतः।
यथाकथञ्चिदेतस्य महिमा ज्ञायते कथम्॥
संसारमें जितने भी प्रसिद्ध तीर्थ हैं, वे सब तीर्थ बिल्वके मूलमें निवास करते हैं। जो पुण्यात्मा बिल्ववृक्षके मूलमें लिंगरूपी अव्यय भगवान् महादेवकी पूजा करता है, वह निश्चित रूपसे शिवको प्राप्त कर लेता है।
जो प्राणी बिल्ववृक्षके मूलमें शिवजीके मस्तक पर अभिषेक करता है, वह समस्त तीर्थोंमें स्नान करनेका फेल प्राप्तकर पृथ्वीपर पवित्र हो जाता है। इस बिल्ववृक्षके मूलमें बने हुए उत्तम थालेको जलसे परिपूर्ण देखकर भगवान् शिव अत्यन्त प्रसन्न होते हैं।
जो व्यक्ति गन्ध-पुष्पादिसे बिल्ववृक्षके मूलका पूजन करता है, वह शिवलोकको प्राप्त करता है और उसके सन्तान और सुखकी अभिवृद्धि होती है।जो मनुष्य बिल्ववृक्षके मूलमें आदरपूर्वक दीपमालाका दान करता है, वह तत्त्वज्ञानसे सम्पन्न होकर महादेवके सान्निध्यको प्राप्त हो जाता है।
पुण्यतीर्थानि यावन्ति लोकेषु प्रथितान्यपि।
तानि सर्वाणि तीर्थानि बिल्वमूले वसन्ति हि॥
बिल्वमूले महादेवं लिङ्गरूपिणमव्ययम्।
यः पूजयति पुण्यात्मा स शिवं प्राप्नुयाद् ध्रुवम्॥
बिल्वमूले जलैर्यस्तु मूर्धानमभिषिञ्चति।
स सर्वतीर्थस्नातः स्यात्स एव भुवि पावनः॥
एतस्य बिल्वमूलस्याथालवालमनुत्तमम्।
जलाकुलं महादेवो दृष्ट्वा तुष्टो भवत्यलम्॥
पूजयेद् बिल्वमूलं यो गन्धपुष्पादिभिर्नरः।
शिवलोकमवाप्नोति सन्ततिर्वर्धते सुखम्॥
बिल्वमूले दीपमालां यः कल्पयति सादरम्।
स तत्त्वज्ञानसम्पन्नो महेशान्तर्गतो भवेत्॥
जो बिल्वशाखाको हाथसे पकड़कर उसके नवपल्लवको ग्रहण करके बिल्वकी पूजा करता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है। जो पुरुष भक्तिपूर्वक बिल्ववृक्षके नीचे एक ३० शिवभक्तको भोजन कराता है, उसे करोड़ों मनुष्योंको भोजन करानेका पुण्य प्राप्त होता है। जो बिल्ववृक्षके नीचे दूध और घीसे युक्त अन्न शिव-भक्तको प्रदान करता है, वह दरिद्र नहीं रह जाता है।
बिल्वशाखां समादाय हस्तेन नवपल्लवम्।
गृहीत्वा पूजयेद् बिल्वं स च पापैः प्रमुच्यते॥
बिल्वमूले शिवरतं भोजयेद्यस्तु भक्तितः।
एकं वा कोटिगुणितं तस्य पुण्यं प्रजायते॥
बिल्वमूले क्षीरयुक्तमन्नमाज्येन संयुतम्।
यो दद्याच्छिवभक्ताय स दरिद्रो न जायते॥
- श्रीशिवमहापुराण
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