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आगमोक्त नाद तत्व

*आगमोक्त नाद तत्त्व* 


ब्रह्म के दो रूप हैं । एक शब्दब्रह्म और दूसरा अर्थब्रह्म । अपनी चरम अवस्था में ये एक, अखण्डरूप में वर्तमान रहते हैं । शक्ति और शक्तिमान् के सदृश इनमें अविनाभाव सम्बन्ध है । शब्दब्रह्म को अपरप्रणव और अर्थब्रह्म को परप्रणव के नाम से भी कहा जाता है । तान्त्रिकों के मत में यह सृष्टि पर ब्रह्म ( परमशिव, चितितत्त्व ) का परिणाम है । परिणत होते हुए भी ब्रह्म में किसी प्रकार का विकार नहीं होता । मूलतः सृष्टि दो प्रकार की ही होती है— १. शब्दमय और २. अर्थमय | चक्र और देहमय सृष्टियों का भी उल्लेख मिलता है किन्तु देह ब्रह्माण्ड की ही लघु प्रतिकृति है । और चक्र उन दोनों का आधारभूत सूक्ष्म ठाठ अथवा तन्त्र, जिस पर स्थूलता का वैभवविलास दृष्टिगोचर होता है। जिस प्रकार लौहमय सूक्ष्मगृह के ऊपर स्थूलगृह का निर्माण किया जाता है ठीक वैसे ही चक्रमयी सृष्टि तथा पिण्ड एवं ब्रह्माण्ड की सृष्टि समझनी चाहिए ।

शब्दार्थमय द्विविध सृष्टि का, बीज, अंकुर और उनकी छाया के समान, एक साथ ही उद्भव और अभिवर्द्धन होता है । छाया के दर्शन से वृक्ष की अनुमिति अनुभवसिद्ध है। छाया में वृक्षों के सदृश आकृतिमता और वृक्ष के बिना उसकी अनुपपत्ति ये दोनों बातें प्रत्यक्ष हैं । वैसे ही शब्द, अर्थ के बिना सम्भव नहीं। इसलिए कालिदास ने कहा है - 
 *वागर्थाविव सम्पृक्ती वागर्थप्रतिपत्तये ।* 
 *जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ ॥ ५ ॥* 
रघुवंश, १ सर्ग

 *याहमित्युदितवाक् परा च सा, यः प्रकाशलुलितात्मविग्रहः ।* 
 *यौ मिथ:  समुदिताविहोन्मुखो तो षडध्वपितरौ श्रये शिवौ ॥६ ॥* 
चिद्गगनचन्द्रिका प्रथम विमर्श

शब्द और अर्थरूप सृष्टि के ज्ञान का जनक मन है । वह शब्द को श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा ही ग्रहण करता है, अर्थ को कहीं साक्षात् और कहीं नेत्रादि के द्वारा । उपर्युक्त दोनों सृष्टियाँ स्थूल, सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम भेद से चार-चार प्रकार की हैं । श्रोत्र और मन भी अर्थ के ही अन्तर्गत हैं अतः वे  चार प्रकार के हैं । स्थूल श्रोत्र के द्वारा, स्थूल शब्दश्रवण से, स्थूल अर्थ का स्थूल मन से ज्ञान होता है । सूक्ष्म श्रोत्र द्वारा, सूक्ष्म शब्द के श्रवण से, सूक्ष्म अर्थ का सूक्ष्म मन से ज्ञान इत्यादि समझना चाहिए । श्रोत्र और मन की सूक्ष्मता शास्त्राभ्यास तथा योगाभ्यास की पटुता से सम्पन्न होती है ।
 *'निविचारवैशारद्येऽध्यात्मप्रसाद:* ।'  (समाधिपाद ४७ सू०)
 *'ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा*    (समाधिपाद सू० ४८ )
योगशास्त्र के इन सूत्रों में मन की विशारदता का स्पष्ट संकेत मिलता है-
 *चत्वारि' वाक्परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः । गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गघन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति |* 
 ( ऋ० २१३|२२ । ) 
इस श्रुति द्वारा शब्दों का चातुर्विध्य प्रमाणित है । 

अतः वाणी या शब्द के चार रूप हैं उन्हें शब्द ब्रह्मवित् योगिगण ही जानते हैं। उनमें तीन परा, पश्यन्ती और मध्यमा - मूलाधार नाभि और हृदयरूप गुहा में निहित हैं। वैखरीसंज्ञक चौथी वाणी को ही लोग अपने व्यवहार का विषय बनाते हैं ।

समस्त सृष्टिचक्र का मूल, बिन्दु के नाम से अभिहित किया गया है। यह आख्या वस्तुतः आकारहीन ब्रह्म के सृष्टिरूप यन्त्र की रचना के अनुरूप ही है । अपार संसार के विविधभावी स्थूल आकार प्रकारों को अपने में सूक्ष्मरूप से समेटे हुए अवाङ्मनसगोचर परतत्व सर्वप्रथम बिन्दु के रूप में ही आकलित होता है । शब्दातीत पर तत्व की ही संज्ञा महाबिन्दु है जिसे अनिर्देश्य, अग्राह्य, अशब्द आदि निषेधों द्वारा कहा जाता है । सत्य तो यह है कि सृष्टिद्वय का मूलभूत सूक्ष्मरूप विशेषात्मक होने के कारण अभिन्न शब्दार्थरूप परब्रह्म को ही विद्वान् शब्दब्रह्म आदि पदों से निर्दिष्ट करते हैं । वह प्रकाशस्वरूप है। 'घटादि स्फुरित होते हैं' इत्यादि प्रतीतियाँ पदार्थमात्र में 'स्फुरणा' नामक वस्तुविशेष का तत्तत्पदार्थों से अभेदानुभव सिद्ध करती हैं । प्रकाश में 'स्फुरणात्मक' तत्त्व स्वीकार करना होगा। क्योंकि प्रकाश स्फुरित होता है। यह प्रतीति होती है। यह स्फुरणा ही शक्ति है। प्रकाश और स्फुरणा इनकी सम्मिलित रूप में संसार की कारणता मानी जाती है । अतः जहाँ कहीं भी शुद्धशिव अथवा शुद्धशक्ति की जगज्जनकता कही गई हो वहाँ उभयात्मक ही समझना चाहिए । प्रकाश 'अकार' का स्वरूप है और वाच्य भी । तथा स्फुरणा, 'हंकार' रूप है तथा उसकी वाच्य भी । ये ‘अ’ और 'हं' सूक्ष्मतम परावाक् रूप हैं। परा, पश्यन्ती आदि सृष्टि के मूलभूत, बीजस्थानीय, बिन्दुविशेष के ये दोनों व्यक्ताव्यक्त विलक्षण रूप से वाचक हैं । उस बिन्दु के भी जनक परब्रह्म के अव्यक्त शून्यस्वरूप ये दोनों वाचक हैं । इनके शून्यरूप अर्थात् कलनातीत होने के कारण ही 'यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह' ( तै० उ० २-४ ) इत्यादि श्रुतियों द्वारा उसकी अवाच्यता कही गई है ।

अहं यह एक अद्वैततत्त्व है। इसमें अकार सम्पूर्ण वर्णों का अग्रगामी प्रकाशात्मक परमशिव है । हकार चरम वर्णरूप विमर्श तत्त्व है। इन दोनों का सामरस्य 'पराहन्ता' में स्फुट होता है -
 *अहमित्येकमद्वैतं यत्प्रकाशात्मविभ्रमः ।* 
 *अकार: सर्ववर्णाग्र्यः प्रकाशः परमः शिवः ॥* 
 *हकारोन्त्यः कलारूपो विमर्शख्यिः प्रकीत्तितः ।* 
 *अनयोः सामरस्यं यत्परस्मिन्नहमि स्फुटम् ॥* 
वरिवस्यारहस्य, में उद्धृत

श्रीमद्भगवद्गीता में भी कहा गया है – 'अक्षराणामकारोस्मि ।' *शून्याकाराद्विसर्गान्ताद्विन्दुप्रस्पन्दसंविदः ।* 
 *प्रकाशपरमार्थत्वात् स्फुरत्तालहरीयुतात् ।* 
 *प्रसृतं विश्वलहरीस्थानं मातृत्रयात्मकम् ॥ ११ ॥* योगिनी हृदय

योगिनीहृदय के अनुसार शून्याकार - शून्यमात्रस्वरूप विसर्गान्त अथवा षोडशस्वरान्त्य से बिन्दुविशेष की उत्पत्ति होती है । विसर्ग अव्यक्त हकार के सदृश है ‘अतः’ उसमें अकार भी सन्निविष्ट है । यहाँ शून्याकार शब्द से अकार और हकार ही निर्दिष्ट हुए हैं । निराकार न कहकर शून्याकार कहने से अकार की एक बिन्दुरूपता और विसर्गरूप हकार का दो बिन्दुमय स्वरूप ध्वनित होता है । विसर्गपद द्वारा सोलहवें 'अ :' इस स्वर का बोध हो जाता है पुनः 'अन्त' पद की योजना विमर्शानुबद्ध प्रकाशात्मक अर्थ के लिए प्रयुक्त जान पड़ती है। हकार से अनुबद्ध अकार अर्थात् शक्तिरूप धर्म से अनुबद्ध शिवरूप धर्मी यही विसर्गान्त का वास्तविक अर्थ है ।

स्फुरत्तात्मकलहरी से युक्त, पारमार्थिक प्रकाशरूप उस अहमात्मक बिन्दु से इच्छा, ज्ञान, क्रियास्वरूप मातृत्रयात्मक अनन्त सृष्टि उद्भूत हुई है। प्रकृतशास्त्र के अनुकूल निम्नाङ्कित सृष्टि क्रम को दृष्टि में रखना संगत होगा । जैसे सूर्य के अभिमुख दर्पण में, अन्तःप्रविष्ट किरणों द्वारा दोनों ओर से प्राप्त किरणों के सम्मेलन से, भित्ति पर तेजोबिन्दुविशेष प्रादुर्भूत होता है वैसे ही प्राणियों के अदृष्टवश अपने में उपसंहृत विश्व की रचना की इच्छा से प्रकाशरूप ब्रह्म, अपनी शक्ति को देखने के लिए अभिमुख होकर उसके अन्तराल में तेजरूप से प्रविष्ट होकर शुक्लबिन्दु का रूप ग्रहण करता है ।

     अनन्तर उस बिन्दु में रक्तरूप शक्ति प्रविष्ट होती है जिससे संमिश्रित बिन्दु कुछ अभिवृद्ध होता है । वही 'हार्घ' कलारूप पदार्थविशेष के रूप में परिचित होता है । वह बिन्दु, समष्टिरूप में एक तथा स्फुट शिव-शक्ति-सामरस्य नामक अग्नीषोमात्मक काम, 'रवि' आदि शब्दों द्वारा व्यवहृत होता है। व्यष्टिरूप में तो वे दो ही रहते हैं। शुक्लबिन्दु चन्द्र और रक्तबिन्दु ही अग्नि है । इस बिन्दुद्वय को विसर्ग भी कहते हैं । सूर्य का रात्रि को अग्नि में तथा अमावस्या को चन्द्र में प्रवेश करना श्रुति सिद्ध है अतः समष्टिबिन्दु को रवि की संज्ञा देना सङ्गत ही है । 


   इस प्रकार - ( १ ) काम नामक बिन्दु, (२) विसर्ग और ( ३ ) हार्धकला –(१. काम नामक बिन्दु - मिश्रित बिन्दु | २.विसर्ग = शोण और सित बिन्दुद्वय ।३. हार्धकला – अभिवृद्ध रूप ।) इन तीन अवयवों से युक्त एक अखण्डपदार्थ अण् आदि प्रत्याहार के सदृश कामकला के नाम से अभिहित हुआ है । यही सम्पूर्ण सृष्टि का बीज है । इसीलिए अकार और हकार के मध्य में समस्त वर्णों का पाठ हो जाता है । ळ वर्ण ल से अभिन्न है । तथा 'क्ष' क ष का संयुक्त रूप है अतः 'अहं' से वह भी बहिर्गत नहीं है । कामकला का मूलभूत ब्रह्म ही तुरीय ( चतुर्थ ) बिन्दु है । चतुर्थ बिन्दुरूप एवं शून्य स्वरूप अकार तथा हकार से उत्पन्न कामकला को व्यक्ताव्यक्तविलक्षण 'अहं' पद द्वारा बोधित करते हैं ।

 अकार-हकारोभयात्मकता तथा शिवशक्तिद्वयरूपता ही 'अहं' इस पद का तात्पर्यार्थ है । यही कारण है कि तज्जन्य सूक्ष्म से लेकर स्थूलपर्यन्त अखिल सृष्टि 'अहं' पद की वाच्य मानी जाती है ।

जैसे उदुम्बर ( गूलर ) पद के वाच्य बीज से जनित परस्पर विलक्षण, पर्ण काष्ठ, कुसुम, फल, कीट आदि में - उदुम्बरपर्ण' 'उदुम्बरकृमि:' इन रूपों में उदुम्बरता का ही व्यवहार होता है वैसे ही अहं पद का भी । 'ब्रह्म वा इदमग्र आसीत्, तदात्मानमेवावेदहं ब्रह्मास्मीति' इस बृहदारण्यक में, 'त्वां वा अहमहं वै त्वम्' इस ऐतरेय में, 'कस्त्वमित्यहमिति होवाच त्वं मेवेदं सर्वं तस्मादहमिति सर्वाभिधानम् ।' आदि तापनीय प्रभृति उपनिषदों में 'अहं' पद की सर्ववाचकता उल्लिखित है। पाणिनि ने भी अस्मद् शब्द की सर्वनामता घोषित की है। इतना ही नहीं श्रुतियों में तो 'तद्वा एतद् ब्रह्माद्वयं' आदि से ब्रह्मस्वरूप बताकर 'हंस : ' ' सोहं' द्वारा पूर्णाहम्भावभावनात्मक उपासना का विधान किया गया है ।


 'कादिमत' में – 'योनिमुद्रा का बन्धन, मन्त्रों में वीर्य की योजना तथा आदिम और अन्त्य का ज्ञान करानेवाला ही गुरु है' ऐसा कहा गया है । आदिम का अर्थ है 'अकार' और अन्त्य का 'हकार' इनका समाहार ही 'अहं' है । यहाँ इतरेतरद्वन्द्व का परित्याग करके समाहारद्वन्द्व का स्वीकार बिन्दुलाभ के लिए ही है । छान्दोग्य में कहा गया है :
' *अहं' एवाधस्तात् 'अहं' उपरिष्टात् 'अहं' पश्चात् 'अहं' पुरस्तात् 'अहं' दक्षिणतोऽहं उत्तरतः 'अहं' एवेदं सर्वम् । ७, २५. १* 

अर्थात् नीचे, ऊपर, पीछे, सम्मुख, दक्षिण और उत्तर 'अहं' ही व्याप्त है। यही नहीं सम्पूर्ण प्रपञ्च अहं स्वरूप ही है । स्व और पर को प्रकाशित करनेवाला विश्वात्मारूप प्रकाश ही एक 'अहं' पद द्वारा कहा गया है -
 *स्वपरावभासनक्षम आत्मा विश्वस्य यः प्रकाशोऽसौ।* 
 *अहमिति स एक उक्तोऽहन्ता स्थितिरीदृशी तस्य ॥* 
विरूपाक्षपञ्चाशिका

इस प्रकार 'अहं' पदार्थ का, जैसे 'अहं' पद वाचक है वैसे ही उत्तम पुरुष एकवचन भी। पूर्वोक्त 'अहं' बिन्दु में, यद्यपि अकार और हकाररूप अवयव नहीं दिखाई देते किन्तु शास्त्र प्रामाण्य से उनका सूक्ष्मरूप वहाँ रहता है यह स्वीकार करना ही चाहिए । हार्घकला के योग से उसमें दीर्घता ( उच्छूनता ) भी सम्पन्न होती है अत: चतुर्थ स्वर का, कामकला के रूप में मन्त्ररहस्यवेत्तागण प्रतिपादन करते हैं ।

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